कल्पना कीजिए एक ऐसा विद्यार्थी जो अपनी पहली डिग्री हासिल करने के बाद रुकने का नाम ही नहीं लेता। एक ऐसा शिक्षक जिसने दर्शनशास्त्र की कक्षा को वैश्विक मंच बना दिया। और एक ऐसा राष्ट्रपति जिसके पास अकादमिक उपलब्धियों का ऐसा खजाना था जिसने भारत को शैक्षिक महाशक्ति के रूप में पहचान दिलाई।

यह है डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की कहानी - भारत के सबसे शिक्षित राष्ट्रपति की कहानी। आइए समझते हैं कि कैसे उन्होंने ज्ञान की इस असाधारण यात्रा को शुरू किया और दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित डिग्रियाँ अपने नाम कीं।
एक साधारण शुरुआत, असाधारण महत्वाकांक्षा
डॉ. राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को तमिलनाडु के तिरुत्तानी में एक मध्यमवर्गीय तेलुगु परिवार में हुआ था। उनके पिता सर्वपल्ली वीरास्वामी एक साधारण राजस्व अधिकारी थे, लेकिन उन्होंने अपने बेटे की शिक्षा पर कभी समझौता नहीं किया।
उनकी शिक्षा-यात्रा की शुरुआत तिरुत्तानी के स्थानीय स्कूल से हुई, लेकिन जल्द ही उनकी प्रतिभा ने उन्हें चेन्नई के मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज तक पहुँचा दिया। हैरान करने वाली बात यह है कि मात्र 17 वर्ष की आयु में उन्होंने स्नातक (BA) की डिग्री प्राप्त की और 1906 तक परास्नातक (MA) भी पूरा कर लिया।
वो 9 प्रतिष्ठित डिग्रियाँ जो बनाती हैं एक लीजेंड
अधिकतर लोग डॉ. राधाकृष्णन को केवल एक शिक्षाविद या राष्ट्रपति के रूप में जानते हैं, लेकिन उनकी शैक्षिक उपलब्धियों का दायरा कहीं अधिक व्यापक था। भारत सरकार के आधिकारिक रिकॉर्ड्स के अनुसार, उनके पास नौ प्रतिष्ठित डिग्रियाँ थीं जिनमें से कई के बारे में आपने शायद ही सुना हो:
- M.A. (Master of Arts) - मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज
- D. Litt. (Honorary) - मानद डॉक्टर ऑफ लिटरेचर
- LL.D (Doctor of Laws) - कानून में डॉक्टरेट
- D.C.L. (Doctor of Civil Law) - सिविल लॉ में डॉक्टरेट
- Litt. D. (Doctor of Letters) - साहित्य में डॉक्टरेट
- D.L. (Doctor of Literature) - साहित्यिक डॉक्टरेट
- F.R.S.L. (Fellow of the Royal Society of Literature) - रॉयल सोसाइटी के फेलो
- F.B.A. (Fellow of the British Academy) - ब्रिटिश अकादमी के फेलो
- ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ऑल सोल्स कॉलेज का मानद फेलो - शिक्षा जगत का सर्वोच्च सम्मान
यह सूची केवल कागजी डिग्रियों तक सीमित नहीं है - यह एक असाधारण बौद्धिक यात्रा का प्रमाण है जिसने भारतीय दर्शन को वैश्विक पहचान दिलाई।
शिक्षण से लेकर कुलपति तक: एक अद्भुत करियर ओडिसी
डॉ. राधाकृष्णन का शैक्षिक करियर 1909 में मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के व्याख्याता के रूप में शुरू हुआ। लेकिन यह केवल शुरुआत थी:
- 1918: मैसूर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त हुए
- 1921: कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर बने
- 1931-1936: आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में कार्य किया
- 1939: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति बने
इस दौरान उन्होंने 'Tagore's Philosophy' और 'The Reign of Religion in Contemporary Philosophy' जैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ लिखीं जिन्होंने पूर्व और पश्चिम के दार्शनिक विचारों के बीच एक सशक्त सेतु का काम किया।
वैश्विक मंच पर भारतीय दर्शन की आवाज
डॉ. राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन को अंतरराष्ट्रीय पटल पर पहुँचाने में अग्रणी भूमिका निभाई:
- 1926 में लंदन और हावर्ड में भारत का प्रतिनिधित्व किया
- 1929 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में 'An Idealist View of Life' पर ऐतिहासिक व्याख्यान दिया
- 1931 में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा नाइट की उपाधि से सम्मानित किए गए (जिसे बाद में स्वतंत्रता के बाद उन्होंने वापस कर दिया)
- 1936 में ऑक्सफोर्ड के प्रतिष्ठित ऑल सोल्स कॉलेज के फेलो नियुक्त हुए
शिक्षक, दार्शनिक, राष्ट्रपति: एक त्रिआयामी विरासत
डॉ. राधाकृष्णन की उपलब्धियाँ केवल शैक्षिक क्षेत्र तक सीमित नहीं थीं। वे भारत के:
- पहले उपराष्ट्रपति (1952-1962)
- दूसरे राष्ट्रपति (1962-1967) बने
1954 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया - देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार।
लेकिन उनकी सबसे स्थायी विरासत शायद शिक्षक दिवस के रूप में है। उन्होंने अपना जन्मदिन शिक्षकों को समर्पित कर दिया, और तब से हर साल 5 सितंबर को पूरा देश शिक्षकों के योगदान को याद करता है।
आज के शिक्षार्थियों के लिए प्रासंगिक सबक
डॉ. राधाकृष्णन की जीवन यात्रा आज के युवाओं के लिए कई महत्वपूर्ण सबक रखती है:
- शिक्षा सबसे शक्तिशाली उपकरण है - एक छोटे से गाँव से शुरू हुई यात्रा दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों तक पहुँची
- सीखने की ललक कभी न खत्म होने दें - एक डिग्री के बाद दूसरी, फिर तीसरी - ज्ञान की भूख ही सफलता की कुंजी है
- वैश्विक सोचें, स्थानीय कार्य करें - भारतीय दर्शन को वैश्विक पहचान दिलाने का उनका प्रयास आज भी प्रासंगिक है
निष्कर्ष: ज्ञान की अनन्त यात्रा
17 अप्रैल 1975 को डॉ. राधाकृष्णन ने अंतिम सांस ली, लेकिन उनकी विरासत आज भी करोड़ों शिक्षार्थियों और शिक्षकों को प्रेरित कर रही है। वे सच्चे अर्थों में "शिक्षकों के शिक्षक" थे - एक ऐसा मार्गदर्शक जिसने न केवल अपने लिए बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए ज्ञान के द्वार खोले।
क्या आज का भारत डॉ. राधाकृष्णन जैसे शिक्षाविदों को तैयार कर पा रहा है? यह वह प्रश्न है जो हर शिक्षक दिवस पर हमें स्वयं से पूछना चाहिए।