जब हम भगवान परशुराम का नाम सुनते हैं, तो दृष्टिपटल पर एक ऐसे गुस्सैल योद्धा की तस्वीर बनती है जो हाथ में फरसा लेकर दुष्टों का संहार कर रहे हैं लेकिन क्या इतने तक ही उनका और सीमित था?

अगर हमसे पूछा जाए तो हम कहेंगे बिल्कुल नहीं! बल्कि उनकी गुस्सैल प्रवृत्ति को महिमामंडन कर अपने हिसाब से इस समाज ने तैयार कर लिया क्योंकि वह इससे बहुत आगे का व्यक्तित्व रखते थे. आज जब धर्म खो रहा है कोई तो होना चाहिए जो सही और गलत के बीच की रेखा को फिर से खींचे। जब नैतिकता, मानवता कमज़ोर पड़ रही है, तो आज Parshuram Jayanti 2025 पर उनसे बहुत सारी प्रेरणा ले सकते हैं।
ब्राह्मण का शस्त्र उठाना मतलब सामाजिक ढांचे को खुली चुनौती
भगवान परशुरामजी के पिता ऋषि जमदग्नि थे जो यज्ञ अनुष्ठान और पूजा पाठ योग करते थे और उस समय ब्राह्मण का यही कर्तव्य था और यही कर्म परशुराम जी का भी था क्योंकि उस समय सामाजिक संरचना के हिसाब से ब्राह्मण पूजा-पाठ और क्षत्रिय को सिर्फ युद्ध से जोड़ता था। लेकिन परशुराम ने शस्त्र उठाए और युद्ध किया उन्होंने दिखाया कि अगर धर्म की रक्षा करनी है, तो वर्ण नहीं, कर्म मायने रखता है, अधर्म के खिलाफ शस्त्र उठाया और वो भी बिना किसी निजी स्वार्थ के।
- धर्म का पालन वर्ण से नहीं, दृष्टिकोण से होता है।
- परशुराम ने समाज को बताया कि जब अन्याय बढ़े, तो चुप रहना भी पाप है।
- उन्होंने बल और बुद्धि, दोनों का संतुलन प्रस्तुत किया।
क्रोध को न्याय के लिए इस्तेमाल करना
भगवान परशुरामजी को साक्षात् महादेव ने शिक्षित किया था और वह खुद भगवान नारायण के अवतार थे इससे उनकी शक्तियों की कोई सीमा नहीं थी असीम बल और क्रोध के स्वामी होने के बाद भी तब तक उन्होंने किसी पर प्रहार नहीं किया जब तक बात पूरे समाज पर न आई इससे पता चलता है कि उनका क्रोध आंख मूंदकर मारने वाला नहीं था। उनका हर कदम न्याय के तराज़ू पर तौला गया था। जब उन्होंने क्षत्रियों के अत्याचार देखे, तो वो चुप नहीं रहे।

- क्रोध तब सही है जब वो समाजहित में हो।
- अगर अन्याय के खिलाफ कोई न खड़ा हो, तो खड़े होने वाला एक भी बहुत होता है।
- विवेक से लिया गया कठोर निर्णय भी धर्म हो सकता है।
आज के समाज में परशुरामजी की अहमियत
शास्त्र के हिसाब से देखा जाए तो यह कलयुगी दौर है जहां सत्य का प्रतिशत दाल में नमक बराबर है वहीं झूठ अपने पैर दिन दोगुना और रात चौगुना बढ़ रहा है यहां सही और गलत की परिभाषा धुंधली होती जा रही है। नैतिकता किताबों तक सीमित हो गई है और लोग सुविधानुसार मौकापरस्त हैं ऐसे में परशुराम की जीवनशैली एक रास्ता दिखा सकती है।
- सत्य के लिए किसी और की राह न देखकर स्वयं खड़े होना।
- अपने हित से ऊपर उठकर सामाजिक मूल्य और मानवता के लिए एक जुट करना लोगों को और स्वयं के नैतिक मूल्यों पर चलना
- संयमित जीवन शैली और मानव धर्म के मूल्यों को सर्वोपरि रखकर अपने जीवन में आत्मसात करना।
परशुराम की छवि: क्या हमने उन्हें समझा?
टीवी और फिल्मों में परशुराम को अक्सर सिर्फ क्रोधी और हिंसक दिखाया गया है, जबकि उनका व्यक्तित्व कहीं ज़्यादा गहरा और संतुलित था। उन्होंने हमेशा मर्यादा का पालन किया और अपने गुस्से का इस्तेमाल केवल तब किया जब कोई और रास्ता नहीं बचा।
- वो तपस्वी होने के साथ अत्यंत जानी थे, जबकि बताया गया कि वह केवल कुशल योद्धा थे।
- उनका क्रोध न्याय संगत था निजी हित सम्मिलित नहीं था।
उनका जीवन कर्म नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा
आज अधिकतर युवा अपने मार्ग से भटक रहा है कामकाज, खानपान की आधुनिकता के बीच व्यतिगत जीवन असंतुलित सा हो गया है सोशल मीडिया की शोर में असली आवाज़ें कहीं दब गई हैं। परशुराम उनके लिए एक ऐसी मिसाल हो सकते हैं जो सिखाते हैं कि अनुशासन, साहस और नैतिकता को साथ लेकर भी आगे बढ़ा जा सकता है।

- किसी दबाव के बाद भी अपने फैसले पर अडिग रहना और लक्ष्य की ओर बेबाकी से चलना
- आत्मबल और आत्मनियंत्रण की शक्ति बहुत जरूरी है तभी जीवन संतुलित होगा।
- बिना दिखावे के जीवन में गहराई लाना और अपने पथ पर अडिग रहकर चलना हमेशा मानव धर्म की ऊंचाइयों पर चलने की कोशिश करना।
निष्कर्ष:
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भगवान परशुराम को सिर्फ एक क्रोधी योद्धा के रूप में याद करना उनके जीवन के साथ अन्याय है और उससे भी बड़ा खुद के साथ द्रोह कर रहे हैं क्योंकि इतने महान लोगों की चेतना इस भारत भूमि में समाहित हैं और फिर भी अगर उनसे कुछ सीखने में अक्षम हैं तो यह तो और भी बड़ा अपराध होगा, वह एक ऐसी चेतना के प्रतीक हैं जिनसे कि धर्म, कर्म, लक्ष्य, निर्णय और संपूर्ण जीवन को जीने की कला सीख सकते हैं इस परशुराम जयंती, सिर्फ पूजा ही नही अपितु उनके जीवन से कुछ आत्मसात भी करें।