पौराणिक कथाओं में भगवान शिव के अनेकों शिवांश का विवरण मिलता है शायद ही कोई ऐसा अंश रहा हो जो अपने जन्मदाता महादेव के प्रति आभार व्यक्त किया हो।
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सभी ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल देवताओं और स्वर्ग पर आधिपत्य हासिल करने के लिए किया है लेकिन जालन्धर और लोहितांग ऐसे शिवांश थे जिन्होंने त्रिदेवों में शंकर जी के स्थान को लेने तक की योजना बनाई, आइए जानते हैं कि इन दोनो शिवांशों में कौन था श्रेष्ठ योद्धा।
जालन्धर और लोहीतांग दोनो के जन्मदाता महादेव
जब राक्षसों और देवतागण मिलकर समुद्र मंथन के कार्य को सम्पन्न कर रहे थे उसी समय भोलेनाथ की 'स्वेद की बूंद' सागर में गिरी और तभी जालन्धर का जन्म होता है। नाट्याचार्य ऋषि तांडू ने भोलेबाबा को प्रसन्न कर वरदान स्वरूप 'ताण्डव नृत्य' सीखने की इच्छा जताई और जब त्रिलोकी नाथ वांछित वरदान नृत्य सिखाने लगे तब एक समय आया कि भगवान भोलेनाथ तांडव करते करते इतना खो गए कि सृष्टि का विनाश होने लगा तभी माता पार्वती ने लास्य नृत्य कर उन्हे शांत किया और उसी नृत्य के दौरान "पसीने की बूंद" पृथ्वी पर गिरी और लोहिताँग का जन्म होता है।
जालन्धर की शक्तियां
समुद्र अर्थात जल में पैदा होने की वजह से इसका नाम जालन्धर पड़ा, लिंग पुराण के अनुसार इसका असली नाम संखचूर्ण था ऐसा विदित है कि यह दिखने में बिलकुल भोलेनाथ का स्वरूप था, जालंधर ने स्वर्ग पर आधिपत्य कर लिया था शिवांश होना और ब्रम्हा जी के वरदान की वजह से इस पर विजय प्राप्त कर पाना मुश्किल काम था, शुरूवात में माता लक्ष्मी को जीतकर त्रिलोकीनाथ बनना चाहता था लेकिन माता लक्ष्मी ने अपनी और जालंधर की उत्पत्ति समुद्र से बताई अतः यह भी बताया कि वह भाई बहन हुए इस बात से वह भी सहमत हुआ।
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फिर वह माता पार्वती को जीतकर भगवान शिव को मारकर उनकी जगह लेने की होड़ पर था उसे यह था कि भोलेनाथ की शक्तियां माता पार्वती में हैं तो क्यों न माता को अलग कर दे। उसकी शक्ति का एक राज यह भी था कि उसकी पत्नी हिरण्याक्ष की पुत्री वृंदा जिससे उसका विवाह हुआ था उसका सतीत्व था और जब तक उसे कोई परास्त नहीं कर सकता था जब तक सतीत्व नष्ट न हो, वृंदा जगतपिता परमात्मा विष्णु जी की परम भक्त थी।
अनेकों बार युद्ध करने के पश्चात त्रिलोक में कोई भी जालंधर का संहार नही कर पा रहा था अन्त में भोलेनाथ और जालन्धर का युद्ध चल रहा था और इधर भगवान नारायण जालंधर का रूप बनाकर वृंदा के पास पहुंच जाते हैं वृंदा उनसे पत्निव्रत व्योहार करती है जिससे उसका सतीत्व नष्ट हो जाता है और इधर भोलेनाथ जालंधर को अपने अंदर ही समा लेते हैं और इस तरह जालन्धर का अंत होता है किंतु भगवान विष्णु वृंदा के श्राप से पाषाण के हो जाते हैं और वृंदा वृक्ष के रूप में "तुलसी" हो जाती है बाद में जब दोनो का विवाह होता है तब भगवान विष्णु शालिकराम कहलाए और पाषाण की मूर्ति से मुक्त हुए।
लोहितांग की शक्तियां
इसका जन्म शिव के क्रोध से होने के कारण बचपन से ही गुस्सैल प्रवत्ति का था और साथ ही इसे अंधकासुर जैसे राक्षस का साया मिला इसके साए में पलकर यह भोलेनाथ को अपना दुश्मन समझ बैठा, शिवांश होने की वजह से लगभग अमरत्व को प्राप्त लोहितांग देवताओं के स्वर्ग पर आधिपत्य से लेकर असुरों का राजा तक बन गया।
स्वर्ग में आधिपत्य के साथ उसकी लालच बढ़ने लग गई और वह भगवान शिव का स्थान लेने की सोचने लगा, भोलेनाथ ने ऋषि पिपलाद के कंठ मुख से अनेकों कथाओं का वर्णन लोहितांग के सम्मुख करवाया किंतु राक्षसी प्रवत्ति की वजह से उसकी बुद्धि परिवर्तित नहीं हुई।
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वह भगवान शिव की कमजोरी और शक्तियों का राज जानने की कोशिश में एक सूत्र को खोज निकाला, वह सूत्र था "नाद धीनम जगत सर्वम" अर्थात यह पूरी सृष्टि और जगत संगीत के आधीन है। इसी मंत्र को ताकत बनकर संगीत के माध्यम से भगवान शिव को साधने की कोशिश की लेकिन असफल हो गया और अंत में भोलेनाथ ने उसे मृत्यु देकर मुक्त किया।
जालंधर और लोहितांग का बचपन से ही पालन पोषण राक्षसी कुल में हुआ जिससे उन दोनो के अंदर तमो गुण की अधिकता रही, दोनो शिवांश थे और अनेकों शक्तियों में निपुण थे दोनो ने ही देवताओं के राजा इंद्र को परस्त कर स्वर्ग नगरी पर आधिपत्य जमा लिया था, तो यह कह पाना कि ज्यादा शक्तियां किसके पास थी इसका निर्णय कर पाना संभव नहीं होगा दोनो के व्यक्तित्व और कार्य कलापों का वर्णन इस लेख में किया गया है अतः आप लोग स्वयं तय कीजिए और टिप्पणी के माध्यम से सुझाव दीजिए।